आज के बच्चे किसी के भी अन्य पीढ़ी के मुकाबले दूसरों से ज्यादा वक्त मोबाइल फोन और अन्य गैजेट्स से अधिक समय बिताते हैं। यही वजह है कि फोमो (FOMO) या फीयरिंग ऑफ मिसिंग आउट (fearing of missing out) किसी भी माता-पिता के लिए अधिक चिंता का विषय बना रहता है। फोमो का बच्चों पर क्या प्रभाव रहता है और माता-पिता कैसे इससे अपने बच्चों को बचा सकते हैं, आइए जानते हैं। (What is FOMO and How to deal with it?)
फोमो या फीयरिंग ऑफ मिसिंग आउट जिसके बारे में हम ज्यादा सुन सकते हैं, लेकिन लगभग 24 साल पहले इसके बारे में 1996 में जिक्र सुनने को मिला था। दरअसल इंटरनेट और स्मार्ट फोन्स के बढ़ते इस्तेमाल के कारण फोमो युवा पीढ़ी के बीच काफी प्रचलित हो गया। यही वजह है कि 2013 में ऑक्स्फोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में इस शब्द को स्वीकार कर इसे जगह भी दी गई। जिसका मतलब है कि टीन एज के बच्चों में किसी भी परिस्थिति में खुद के शामिल न होने का भय बना रहता है। खासकर जब सोशल मीडिया इस वक्त काफी हावी है, तो ऐसे में यह भय और भी अधिक बच्चों के बीच अपना घर बना लेता है।
अभी हर बच्चा खुद को सोशल मीडिया पर एक अलग ही अंदाज में देखना पसंद करता है। वहां उनकी एक अलग पहचान है, जिसके तहत वे चाहते हैं कि हर कोई उन्हीं के आगे-पीछे घूमता रहे। जैसे कि वे अपने दिनभर की सभी गतिविधियों को तस्वीरों, वीडियोज या कुछ शब्दों के माध्यम से बताते हैं और उम्मीद करते हैं कि उन्हें कुछ ही मिनटों में अच्छी से अच्छी प्रतिक्रियाएं भी मिल जाएं। यह सब सिर्फ इसीलिए कि वे अपने दोस्तों से कहीं कम न दिखाई दें या किसी भी कार्यक्रम या परिस्थिति में दूसरों से पीछे न रह जाएं।
टीन एज बच्चों पर कैसे होता है फोमो (FOMO) का प्रभाव
जितना अधिक या व्यापक आज के समय में सोशल मीडिया का विस्तार है, उतना ही व्यापक इसका टीन एज बच्चों पर प्रभाव भी है। किसी भी सोशल मीडिया साइट या ग्रुप पर जब बच्चे अपने दोस्तों या जानकारों की तस्वीरें या अन्य पोस्ट्स देखते हैं, तो उससे उनके दिमाग में अपने लिए मान-सम्मान में कमी और अपनी छवि के लिए शंका मन में घर करती है।
इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि घर में दो बच्चे हैं और एक बच्चा हमेशा अधिक नंबर लाता है, जबकि दूसरा बच्चा पढ़ने में सिर्फ औसत है, तो परिणाम के दिन औसत अंकों वाले बच्चे की मानसिक हालत जैसी होती है, ठीक वैसा ही बच्चों को महसूस होता है जब वे सोशल मीडिया पर दूसरों की पोस्ट को पढ़ते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने कुछ ऐसा नहीं किया, जिसे वे सोशल मीडिया पर साझा कर खुद को दूसरों की नजरों में उठा सकें। इस हालत में बच्चे में बेचैनी और खुद के लगभग खत्म होने जैसी भावना उत्पन्न होती है और इन दोनों की वजह से उनके मानसिक, सामाजिक और शारीरिक बदलाव भी देखने को मिलते हैं।
फोमो का प्रभाव प्री-नर्सरी या नर्सरी के बच्चों पर कोई खास असर नहीं होता, जबकि टीनएज बच्चे इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, क्योंकि सोशल मीडिया साइट्स बच्चों के बीच अधिक लोकप्रिय हैं और उन्हें लगता है कि ये उन्हें एक-दूसरे के और नजदीक लाने का काम करती हैं, जबकि असल यह है कि इससे टीन एज बच्चे एक दूसरे से काफी दूर होते चले जाते हैं। बच्चे अपना अधिक समय ऑनलाइन दोस्तों के साथ बिताते हैं और माता-पिता से अधिक बातचीत नहीं करते, जिसकी वजह से उनकी बेचैनी कई बार बहुत उग्र रूप भी ले लेती है। ऐसे में खुद से ही बच्चों को कई चीजों का अकेले ही सामना करना पड़ता है जैसे कि पढ़ाई, दोस्तों का दबाव, पारिवारिक समस्याएं, बेवजह आने वाला गुस्सा, दुख और तकलीफ।
फोमो (FOMO) संकेत
अन्य किसी भी समस्या की ही तरह फोमो के भी कुछ संकेत ऐसे होते हैं, जो माता-पिता आसानी से देख और समझ सकते हैं। जैसे कि बच्चों के मूड में जल्दी-जल्दी बदलाव होते हैं, वे अधिक गुस्सा करने लगते हैं और वह भी छोटी-छोटी बातों पर और बच्चों की नींद में भी बदलाव होता दिखाई देता है। कई बच्चों में फोमो के कारण जो बदलाव होते हैं, वे काफी खतरनाक हो सकते हैं, जैसे कि मोबाइल फोन का गलत इस्तेमाल और अन्य गलत या जोखिम भरी गतिविधियों में लिप्त होना।
कैसे करें अपने टीन एज बच्चे की मदद – How to Help Kids overcome FOMO
क्या आपने भी अपने बच्चे में ऐसे कुछ संकेत देखें हैं, अगर हां, तो हो सकता है कि आपको बच्चा भी फोमो से प्रभावित हो। इसके लिए जरूरी है कि आप अपने बच्चे से बात करें। ज्यादातर मामलों में माता-पिता अपने बच्चे को कम से कम मोबाइल फोन और सोशल मीडिया को इस्तेमाल करने का सुझाव देते हैं, जबकि इस परिस्थिति में बच्चे पर मोबाइल फोन या सोशल मीडिया से दूर होने पर काफी बुरे प्रभाव हो सकते हैं। इससे बेहतर होगा कि आप उनके साथ बच्चों की तरह नहीं, बल्कि व्यस्कों की तरह बातचीत करें। आखिर फोमो या इस भय की जड़ है, दुनिया से दूर होने का भय। अगर आप बच्चे को यह यकीन दिला देंगे कि सोशल मीडिया नहीं, बल्कि असल की दुनिया में आपके लिए हर जगह हैं और आपके परिवार के लिए वे कितने अहम है तो धीरे-धीरे ही सही वे खो जाने के डर से बाहर निकल आएंगे।
बच्चों को सीखाने से बेहतर होता है समझाना। आप बच्चे को अपनी किसी गलती के बारे में बता सकते हैं कि अगर आपसे कोई गलती हुई होती या आप अगर इस परिस्थिति में होते तो आप क्या करते। आप बच्चे को अपनी जिंदगी के उदाहरणों से भी परिस्थिति को समझने में मदद कर सकते हैं।
इस प्रकार की मानसिक समस्याओं को अगर माता-पिता नहीं समझ पाते तो बेहतर रहेगा कि आप अपने बच्चे पर अधिक प्रयोग न करें, बल्कि उसके लिए प्रोफेशनल्स जैसे कि साइकोलॉजिस्ट या मनोवैज्ञानिक की मदद लें। हो सकता है बच्चा मन ही मन में अपने माता-पिता के प्रति गुस्सा या विरोध की भावना पाल चुका हो, ऐसे में वे साइकोलॉजिस्ट के सामने अपनी बात रखने में खुद को सुरक्षित महसूस करेगा।
बच्चों की मदद सिर्फ वही कर सकता है, जिस पर बच्चे भरोसा करते हैं। ऐसे में माता-पिता को पहले बच्चे का भरोसा जितना चाहिए और फिर उनकी समस्या को ढंग से समझना चाहिए। आधुनिकता के इस दौर में जरूरी नहीं है कि हम हर समस्या से अवगत होंगे, लेकिन यह भी सच नहीं है कि ऐसी कोई समस्या हमारे बच्चे को हो ही नहीं सकती। टीन एज वैसे भी कई उतार-चढ़ावों से गुजरती है, ऐसे में दूसरों के सामने खो जाने की भावना भी काफी प्रबल हो सकती है। बच्चों की भावनाओं की कद्र करें, उन्हें समझें।